Saturday 8 June 2013

मैं हूँ विराट नगर (पांडव अज्ञातवास का साक्षी और बोद्ध साक्षात्कार का बीजक)--- साथ ही साथ मैं हूँ एक झांकता मुग़ल कालीन झरोखा।।।।


काल चक्र अनंत है,  अंतहीन है और  घटनाए इसी  काल चक्र  की  धुरी पर भागती दौड़ती रहती है।कई प्रमाणित हो जाती है तो कई कालांतर में विलुप्त हो जाती है।इन्ही घटनाओ की क्रमबद्ध  सूचि को कुछ लोग  इतिहास कहते है।मैं ऐसे ही किसी  एक घटनाचक्र के बारे में काफी  दिनों से सोच रहा था...उस घटनाक्रम के  चरित्रों एंव पात्रो के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए व्याकुल होने लगा था ।इस  घटनाक्रम की कड़ी  जयपुर से लगभग 90 कि .मी  की दूरी पर अरावली पर्वत श्रंखला  की सुन्दर और मनमोहक   घाटियों के बीच  में   स्थित   विराट नगरी  में अतीत के दस्तावेजो में दर्ज है  ।    
यह नगरी  प्राचीन काल में मत्स्य देश की राजधानी हुआ करती थी।आज भी राजस्थान में बहुत लोग अलवर,दौसा और जयपुर के कुछ क्षेत्रो को मत्स्य भू खंड का ही हिस्सा मानते है। वैदिक काल में मत्स्य देश की गणना 16 महाजनपदो में की जाती थी।प्राचीन भारत में  राज्यों और प्रशासनिक इकाईयो  को महाजनपद  कहा जाता था। महाजनपद पर राजा का ही आधिपत्य रहता था (Monarchy) ,इनसे कुछ विपरीत थे गण राज्य (Republic States) जहाँ लोगो का समूह या एक संघ राज्य किया करता था और देश के सर्वोच्च  पद पर आम जनता में से कोई भी पदासीन हो सकता था।प्राचीन यूनान (ग्रीस ) में गण राज्यों का खासा प्रचलन था। प्राचीन भारतीय वैदिक काल  के कुछ प्रसिद्ध महाजनपद थे  मगध (आधुनिक भारत का पटना), अवन्ती(आज का उज्जैन),  कोशल (आज का अयोध्या या फैजाबाद ) इत्यादि।महाजनपदो का प्रचलन और अस्तित्व छठी सदी ईसा पूर्व (6th Century BC) से लेकर तीसरी सदी ईसा पूर्व (3rd Century BC) तक का ही माना गया है। इस काल में लोहे का अत्यधिक प्रयोग होने लग गया था।सिक्के बनाने के लिए टकसालो का भी निर्माण होना प्रारंभ हो गया था ।यही वो समय था जब बोद्ध और जैन विचार धाराओ का उद्गम हुआ जिसका प्रचार प्रसार करने के लिए कई जनपदों ने सहर्ष योगदान दिया। ऐसा माना जाता है की माहाभारत काल में इस राज्य  के स्वामी महाराजा विराट हुआ करते थे लेकिन इसका कोई प्रमाण पुराविदो को  आज तक प्राप्त नहीं हो पाया  है। कहा जाता है की  पांडवो ने अपने अज्ञातवास के लिए इसी जगह का चुनाव किया था और अपना भेष बदलकर यहाँ एक वर्ष तक जीवन यापन करने लगे थे ।
लगभग  2500 साल पुराना सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया बुद्ध स्तूप 

विराट नगर हमारी  सभ्यता की कई  पौराणिक  धरोहरों को अपने अन्दर संजोये इतिहास के धूमिल हुए पन्नो में अपना स्थान आज भी तलाश रहा है।मैंने इन्ही पन्नो पर से कुछ धूल  साफ़ करने की चेष्ठा हेतु विराट नगर जाने का निश्चय किया।मुझे इस बात की काफी प्रसन्नता  है की  अप्रैल माह में  मैंने विराट नगर जाकर वहां की कुछ  अनमोल ऐतिहासिक   धरोहरों को जानने में थोड़ी बहुत सफलता प्राप्त कर ली।
जयपुर मार्ग से विराट नगर आने पर 
जयपुर से राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 8 (National Highway-8) से शाहपुरा पहुँचने के बाद कुछ ही दूर 5-8 km पर एक पेट्रोल पंप दिखाई देता है। इस  स्थान  से एक सड़क --राज्य पथ संख्या .13(Rajasthan State Highway SH-13) दाहिने ओर  अलवर की तरफ जा रही है।यहाँ से करीब 25 कि . मी  पर स्थित है विराट नगर।इसी सड़क से सरिस्का अभ्यारण  भी जाया जा सकता है जो विराट नगर से करीब 20 KM आगे स्थित है।
जयपुर से शाहपुरा तक का रास्ता है (65 KM) और शाहपुरा से विराट नगर (25 KM). जयपुर से विराट नगर जाने का मार्ग नीचे दिया गया है।

NH - 8 ---> जयपुर >>अचरोल >> चंदवाजी >>शाहपुरा ----- (दाहिने ) SH-13 से  ----> जोगीपुरा >> जवानपुरा >> धौली कोठी >> बील्वाड़ी >> विराट नगर >> थानागाजी >> सरिस्का बाघ अभ्यारण >>भर्तहरी >>अकबरपुर >> अलवर .

दिल्ली  मार्ग से विराट नगर' आने पर
दिल्ली से शाहपुरा की दूरी करीब 201 KM है और वहां से विराट नगर की दूरी 25 KM है।

NH - 8 ---> दिल्ली >>गुडगाँव >>शाहजहांपुर >>बहरोड़ >>कोटपुतली >>शाहपुरा  ---(बाएं मुड़कर   ) SH-13 पर मुड़  कर उपरोक्त  दिए गए मार्ग तो प्रशस्त करे और विराट नगर  पहुंचे।

यदि कोई ट्रेन  से आना चाहे तो उसे जयपुर की बजाय अलवर उतरकर  आना चाहिए क्यूंकि दिल्ली से जयपुर जाने वाली हर  ट्रेन अलवर होकर ही निकलती है। ऐसा में इसलिए कह रहा हूँ क्यूंकि जितनी देर में वो जयपुर पहुंचकर विराट नगर की तरफ सड़क यातायात से जायेगा उस से कम समय में वो अलवर से विराट नगर पहुँच जायेगा।

अगर कोई ट्रेन पकड़कर  दिल्ली से जयपुर उतरकर  आये तो उसे ज्यादा समय लगेगा।इसका  विवरण नीचे दिया गया है
दिल्ली से जयपुर           - 265  KM
जयपुर से विराट नगर   -    90 KM ,कुल मिलकर  315 KM. 
दिल्ली से विराट नगर जाने के  लिए एक और सुगम सड़क है  जिसको में कई बार आजमा चुका  हूँ।इसका विवरण इस प्रकार है।
NH- 8 --->दिल्ली >>गुडगाँव >>धारूहेड़ा >>(बाएं  मुड़कर) SH-25 से ----->भिवाड़ी >>टपूकड़ा >>तिजारा >> अलवर .यह सड़क चार लेन की है और बहुत अच्छी हालत में है।
दिल्ली से अलवर         - 155 KM
अलवर से विराट नगर  - 60  KM  कुल मिलाकर  215 KM.

जयपुर से  विराट नगर के लिए सुबह सात बजे  वाली बस मैं बैठकर  9 बजे  पहुँच गया।विराट नगर जाने   का  मेरा केवल एक ही उद्देश्य था और वो  था  बीजक की पहाड़ी  पर बना  हुआ करीब   2500 हज़ार साल पुराना बोद्ध स्तूप। यह एतिहासिक स्मारक विराट नगर बस स्टैंड से करीब ३ कि .मी की दूरी पर  एक ऊंची  पहाड़ी के ऊपर  बने एक समतल धरातल  पर स्थित है।इस पहाड़ी पर तीन समतल धरातल है। सबसे पहले वाले पर एक विशाल शिला प्राकृतिक रूप से विद्यमान है जिसका स्वरूप  एक डायनासोर की तरह प्रतीत होता है।
डायनासोर\रुपी चट्टान और उसके नीचे बना हनुमान मंदिर 

उसे चारो और से देखने से वो बिल्कुल  उस भयंकर पुरातत्व  जीव की तरह दिखाई देता है।
इस शिला के नीचे एक छोटा सा हनुमान  मंदिर  बनाया गया है जिसका कोई एतिहासिक तथ्य मौजूद नहीं है।

दूसरे  समतल धरातल पर स्थित है  तीसरी सदी इसा पूर्व (3rd Century BC) के समय में सम्राट अशोक के द्वारा  बनवाया गया   एक भव्य  बोद्ध स्तूप जो अब अपने अंतिम अवशेषों को समेटे धराशायी सा प्रतीत होता है।
बीजक की पहाड़ी पर स्थित बुद्ध का स्तूप एंव चैत्य गृह ... इन सीढ़ियों से ऊपर का रास्ता बोद्ध भिक्षुओ के लिए बने विहार की तरफ जाता है 
उस समय विराट नगरी  पर मौर्य वंश का आधिपत्य था और यह मगध साम्राज्य के अधीन  एक जनपद बन गया था।मौर्य वंश का पतन भी सम्राट अशोक के निधन के बाद ज़ल्दी ही हो गया था।सम्राट अशोक का उत्तराधिकारी  अयोग्य था और उसका  प्रपौत्र  दशरथ अपने ही सेनापति  पुष्यमित्र शूंग के हाथों मारा  गया था पुष्यमित्र ने शूंग राजवंश  की स्थापना की और इस तरह मौर्य वंश का करुण  अंत हुआ।
यह स्तूप अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey Of India)  के अधीन है .इसका उत्खनन इसवी 1935 मैं किया  गया था। ऐसा माना जाता है की इस स्तूप की दुर्गति के पीछे पुष्यमित्र शूंग का हाथ है और बाद में हुन राजवंश ,जो सेंट्रल एशिया या एशिया माइनर से आये थे , ने लगभग पांचवी  शताब्दी इसवी (5th Century A.D)में इस स्तूप को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया। हूणों ने गुप्त वंश को परस्त कर कुछ समय तक उत्तर और पश्चिम भारत पर अपना आधिपत्य कायम किया था।

वास्तविक रूप से  स्तूप ऐसे मिट्टी  या ईंटो के गुम्बदाकार  टीले होते है जो महापुरुषों (उदाहरण के रूप में महात्मा बुद्ध ), की मृत्यु के उपरांत उनके भस्म  अवशेषो को भूमि के नीचे गाढ़कर एक स्मारक के रूप में निर्मित किये जाते थे।ऐसा माना जाता है की मध्य प्रदेश में स्थित  विश्व विख्यात साँची स्तूप और बीजक की पहाड़ी का यह  स्तूप एक दूसरे  के  समकालीन है जिनका  निर्माण मौर्य काल में सम्राट अशोक ने ही करवाया था।हनुमान मंदिर और उस विशाल शिला से कुछ चालीस फुट ऊपर हैं दूसरा समतल मैदान  जिसके  मध्य में ईंटो की सहायता से निर्मित  एक सात फीट  चोडी  गोलाकार परिक्रमा या प्रदक्षिणा है जो एक  आयताकार (Rectangular) जगती (Platform) पर बनी हुई है। इस  प्रदक्षिणा के इर्द गिर्द भक्त गण चक्कर लगाया करते थे। इसका व्यास(Diameter) 8.23 मीटर है जिसमे एकांतर में 26 अष्ठ  कोणीय (Octagonal) लकड़ी के स्तम्भ  भी थे जो आज नहीं रहे।इन्ही स्तम्भों    की  सहायता से स्तूप के ऊपर बना  गोलाकार गुम्बद कायम था।

चैत्य गृह के समीप बनी परिक्रमा और अष्ठ कोणीय (26 Octagonal Pillars)  स्तम्भों  के सांचे 
यह चैत्य जिसके चारो और यह  गोलाकार परिक्रमा थी वो एक आयताकार चार दिवारी से घिरा हुआ था।लेकिन आज इस  चारदीवारी का कोई भी  अवशेष नहीं बचा और न उस गोलाकार गुम्बद का।बोद्ध धर्म में मूर्ति  पूजा का कोई विधान  नहीं था इसलिए बुद्ध के प्रतीक  रूप में यह स्तूप ही पूजे जाते थे।इन्ही स्तुपो को चैत्य गृह भी कहा जाता था।
संभवतः ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा की मौर्य राजवंश की  बोद्ध धर्म के प्रति  सहिष्णुता   उस काल के ब्राह्मण समाज को नागवार गुजर रही थी।क्यूंकि बोद्ध विचारधारा वैदिक समाज की नीतियों और रीतियों से बिल्कुल विपरीत थी। जिसके फलस्वरूप मौर्य राजवंश का पतन हुआ और बोद्ध धर्म के यह विभिन्न स्मारक महज ध्वंसावशेष बनकर रह गए।
इस स्थल से 30 या 40 फीट की ऊंचाई पर तीसरा समतल मैदान है जहाँ बोद्ध भिक्षुओ के लिए रहने की व्यवस्था की गयी थी।सारे शयन कक्ष वर्गाकार(Square) है और एक दुसरे से जुड़े है।सभी शयन कक्षों के समीप पानी के निकास के लिए नालियाँ बनाई गयी थी।बोद्ध परंपरा के अनुसार इन्हें विहार कहाँ जाता था।
तीसरे समतल मैदान पर बना बोद्ध भिक्षुओ के लिए बने आयताकार  विहार (कक्ष)
सीधी साधी भाषा में कहे तो  यह छात्रावास या होस्टल  ।यहाँ मेरी भेंट एक सज्जन से हुई जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण में कार्यरत है और इस स्मारक की देख रेख करते है।उनका नाम है लहिरी राम जी मीणा।यह मेरी आगे की यात्रा में  कुछ समय तक सहायक सिद्ध हुए।गर्मी बहुत तेज़ थी लेकिन हवा का प्रवाह शीतल था।
वहां से अरावली पर्वत माला के विराट शिखर दिखाई दे रहे थे।दूर दूर तक सिर्फ प्राकृतिक सुन्दरता का ही साम्राज्य फैला हुआ था।बीजक की पहाड़ी की भोगोलिक रचना ने मुझे बहुत विस्मित किया क्यूंकि यहाँ पर पहाड़ो पर बड़ी बड़ी चट्टानें और पत्थर यदा कदा  बिखरे पड़े है।समस्त अरावली पर्वत श्रंखला में इस तरह की रचना बहुत कम ही देखने को मिलती है और खासकर अलवर,जयपुर से सटी पर्वत माला में इस तरह की रचना कहीं देखने को नहीं मिलेगी। जालोर ,सिरोही या ब्यावर की तरफ इस तरह की भोगोलिक रचना जरूर दिखाई देती है।इन पाषाणों की बिखरे स्वरूप  को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी ने अपने हाथों से इनको  उछालकर इस तरह बिखेर दिया हो।शायद ये सब भीम के क्रोध का  परिणाम होगा  जब उसने कीचक का वध किया था।लेकिन ये सब लोक कथाओ तक  ही प्रतिबंधित सोच है जिसका  कोई  प्रमाणिक तथ्य पुराविदो अभी तक नहीं मिल पाया है।लाहिरी राम जी से यही सारी  बातें करते हुए मैं सहसा सोचने लगा की जहाँ मैं आज बैठा हूँ वहां कभी सम्राट अशोक ने अपने कदम रखे होंगे  और  महात्मा बुद्ध के अनुयायियों  ने यहाँ विराजमान होकर  जन साधारण का मार्ग दर्शन किया होगा। लाहिरी राम जी ने  मुझे राजस्थान के कई दर्शनीय स्थलों को घूमने  के सुझाव भी दिया।  उन्होंने मुझे बताया की इस पहाड़ी से कुछ दूर नीचे पत्थरों पर कुछ आदिवासी शैलचित्र (Rock Paintings) भी मौजूद है।
लाहिरी राम जी मीणा जो  (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ) में कार्यरत है 

एक हिरण  की सी आकृति वाला शैल चित्र

"शेखावत  जी आप देखना चाहोगे क्या ?" - लहिरी राम  जी ने मुझसे पूछा।।।  सुनते ही में झट से मान गया और मन ही मन में सोचने लगा की 'प्यारे  ये तो सोने पे सुहाग हो गया।अच्छा सरप्राइज मिला तुझे यहाँ '।करीब  200 से  300 फुट नीचे हमने कई शैलचित्र  देखे  जो उन शिलाओ पर कोरे गए थे ।ये चित्रकारी प्राकृतिक रंगों में किसी जीव की चर्बी को मिलकर बनाई  गयी है।चर्बी के उपयोग से चित्रकारी उभर कर नज़र आती है और ज्यादा सुरक्षित रहती है।इसके बारे में वह कोई भी जानकारी देने में  असमर्थ नज़र आ रहे थे ।मेरे पूछने पर उन्होंने बताया की शायाद किसी आदिवासी जाती ने कभी इस जगह को अपने आवास के लिए चुना  होगा,लेकिन उनके उत्तर से में संतुष्ट नहीं था।
में लाहिरी राम जी से कह रहा  था ज़ूम प्लीज ...
किसी जानवर की खोपड़ी सी प्रतीत होती एक शिला जिसके नीचे एक छोटी सी गुफा बनी हुई है 


उन्होंने मुझे बताया की इस चैत्य और विहार के सारे  अवशेष जैसे मिट्टी  के बने पात्र ,सिक्के,मूर्तियाँ और महात्मा बुद्ध के भस्म अवशेषों इत्यादि को एक संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है।इस संग्रहालय(Museum) का संचालन "  पर्यटन,कला एंव संस्कृति विभाग,राजस्थान सरकार"   कर रही है।यह संग्रहालय गणेश डूंगरी के नीचे तलहटी में,  विराट नगर बस स्टैंड से करीब 2 कि .मी की दूरी पर स्तिथ है।राजस्थानी भाषा  में छोटी पहाड़ी को डूंगरी कहते है। बीजक की पहाड़ी से एक छोटा रास्ता संग्रहालय की ओर जाता है ...हमने इसी रास्ते को चुन कर जाने का निर्णय किया।
"अरे भाईसाब दरवाज़ा क्यूँ बंद कर रहे हो "??? मैंने पूछा --- "छोटा दरवाज़ा खुला है न सर आपके लिए "



सम्राट अशोक के विराट नगर में  दो शिलालेख मिलने की बात पता चलती है ।पहला है भाब्रू  शिलालेख जिसका सिर्फ एक चित्र यहाँ इस संग्रहालय में  मौजूद है।यह पाली और ब्राह्मी  लिपि में लिखा गया था।यह शिलालेख सम्राट अशोक के बोद्ध धर्म को स्वीकार लेने की पुष्टि  करता है और इस बात का  प्रमुख प्रमाण साबित हुआ है।
भाब्रू  शिलालेख जो पाली भाषा  में लिखा गया है ...यह उसका फोटू है 

ब्रिटिशकाल के एक कैप्टेन बर्ट ने इसवी 1837 में विराट नगर से कुछ दूर भाब्रू  गाँव से सम्राट अशोक के इस शिलालेख  को खोज निकाला  था।इसके नष्ट हो जाने  के डर से कैप्टेन  ने बड़ी सावधानी से इस शिलालेख को  चट्टान से अलग काटकर विभाजित करवाया ।माना जाता है की यह शिलालेख बीजक की पहाड़ी से ही प्राप्त हुआ था,जो कालांतर में भाब्रू  पहुँच गया।कैप्टेन बर्ट इसे कोलकाता ले गए और वहां ये अभिलेख बंगाल एशियाटिक सोसाइटी के भवन में स्थापित  किया गया है।इसी कारण से यह शिलालेख भब्रू बैराठ कोलकाता अभिलेख के नाम से भी जाना जाता है।
मौर्य कालीन सिक्के 

दूसरा अशोक शिलालेख , जो इस संगहालय से करीब 5-6 कि .मी की दूरी पर स्थित  है ,का रास्ता शहर से होकर  मुग़ल गेट के समीप है।लाहिरी राम जी का और मेरा इतना ही साथ था।

मेरा दूसरा पड़ाव है मुग़ल दरवाजा जो  मध्य कालीन  विराट नगर के  प्रभुत्व को बड़ी अच्छी तरह से दर्शाता है।इसके लिए मैंने विराट नगर बस स्टैंड से   चलना शुरू किया।लोगों ने मुझे सलाह दी की मैं पावटा जाने वाली बस में बैठ कर  मुग़ल गेट चला जाऊ।लेकिन बस का इंतज़ार करना मुझे पसंद नहीं।जितनी देर में बस आएगी उतनी देर में मैं चल कर ही पहुँच जाऊँगा ,ऐसा सोचकर  में चलने लगा।इसी बहाने मुझे  विराट नगर शहर को भी नज़दीक से देखने का मौका मिल रहा था। मेरा यह निर्णय काफी उचित  सिद्ध हुआ  क्यूंकि इसी बहाने मेरी भेंट एक ऐसे व्यक्ति से हुई जिन्होंने  मुझे बादशाह अकबर के उन महलो के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान की। शहर में काफी दूर चलते चलते एक तिराया आया और वहां में कुछ भ्रमित हो गया और सोचने लगा  की किस रास्ते से जाऊं।तभी आगे एक दुकान  दिखाई दी।
प्रह्लाद वल्लभ जी पंच महला के मुख्य प्रवेश  के सामने 

मैंने वहां जाकर दुकान  मैं बैठे सज्जन से मुग़ल दरवाज़ा जाने का रास्ता पुछा ।उन सज्जन का   नाम प्रह्लाद वल्लभ है , जो स्वयं  विराट नगर के इतिहास में अप्रतिम अभिरुचि रखते जान पड़ते  है।जब उन्हें पता चला की मैं ब्लॉग लिखता हूँ तो उन्होंने मेरा बहुत अच्छा  सत्कार किया और उन्होंने स्वयं मुझे   मुग़ल दरवाज़ा दिखाने का निर्णय किया।उन्होंने मुझे मुग़ल दरवाज़े से जुड़े सारे एतिहासिक वृत्तांत काफी सुलभता से समझा दिये।आजकल प्रह्लाद जी राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने वाले आन्दोलन जुटे हुए है।वह  राजस्थानी साहित्य में डिंगल पिंगल शैली पर भी शोध कर रहे हैं।राजस्थान के चारण कवियों ने अपने गीतों के लिए जिस साहित्यिक शैली का प्रयोग किया है,उसे डिंगल पिंगल कहते है।
प्रह्लाद जी से संपर्क करने के लिए उनका मोबाइल नंबर यह रहा  - 08233536217
करीब बीस मिनट में हम मुग़ल दरवाज़ा /गेट  पहुँच गए।
मुग़ल गेट /दरवाज़ा एक  बहुत सुन्दर भवन है जिसका निर्माण आमेर के कछावा वंश के महाराजा मान  सिंह ने करवाया था।यह उस समय की बात है जब कछावा या कछवाह  वंश के राजपूतों की  राजधानी आमेर हुआ करती थी।17 वी  शताब्दी में कछावा राजवंश की  राजधानी आमेर से  जयपुर हो गयी थी । कछावा राजवंश अपनी उत्पति अयोध्या नरेश सूर्यवंशी श्री राम के ज्येष्ठ पुत्र कुश से पाते है।इसका निर्माण बादशाह अकबर के विश्राम गृह के रूप में करवाया गया था।अजमेर में  मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह जाते समय अकबर विराट नगर के इसी   भवन में विश्राम करने के लिए और कभी कभी आखेट करने के लिए  रुका करता था ।महाराजा मान सिंह ने बादशाह के स्वागत हेतु तीन भवनों का निर्माण किया जिनके नाम है पंच महला ,चौ  महला और नौ महला।

पंच  महला जिसके बीच में मुख्य प्रवेश द्वार एक गुम्बदाकार हाल में खुलता है ....इस चबूतरे के नीचे घुडसाल बनी है… दूसरी मंजिल पर चारो और कक्ष बने है जिनका आतंरिक प्रवेश हाल में खुलता है ...इन कक्षों में सुन्दर गवाक्ष बने हुए है ..और छत पर पांच सुन्दर छतरियां बनी हुई है 

चबूतरे के नीचे बनी घुडसाल 
पंच महला वो भवन था जो बादशाह के आवास  के लिए बनाया गया था और इसे पंच  महला इसलिए कहा जाता है क्यूंकि इस भवन के ऊपर पांच छतरियाँ  बहुत ही सुन्दर ढंग से सुस्सजित है।इसमें चारो कोनो पर चार  छतरियाँ  का और बीच में एक विशाल छतरी का निर्माण किया गया है। इस महल की एकमात्र  विशेषता है इसकी   दीवारों पर किये गए भित्ति चित्र।यह भवन देखने में ताजमहल की तरह लगता है परन्तु इसमें ताज महल की तरह चारो ओर मीनारे नहीं बनी हुई है।यह भवन एक  एक बहुत बड़े चबूतरे पर बना हुआ है  जिसके   नीचे एक घुडसाल भी बनाई गयी थी ।इस भवन के दरवाजों की ऊंचाई मुग़ल कालीन शैली के अनुसार काफी कम आकर में बनी है।मुख्य प्रवेश से  एक बड़ा गुम्बदाकार हाल में जाया जा सकता है  इस हाल की  दीवारों पर हिंदी एंव फारसी में लिखे कई लेख मिल जाते है जो धूल एंव  समय के कारण कुछ अस्पष्ट नज़र आ रहे है।

अरबी और हिंदी के लेख जो दीवारों पर उकेरे गए है 

यहीं पर उत्तर की दीवारों पर इसवी 1620 का लेख भी मिलता है जिससे यह स्पष्ट होता है की यहाँ से मुग़ल साम्राज्य के लिए खजाना समय समय पर ले जाया जाता था।खजाने के लिए आने वाले कर्मचारी एंव अधिकारीयों के हस्ताक्षरों के प्रमाण भी मिलते है।इस भवन के ऊपर जाने के लिए दो तरफ पूर्व और पश्चिम की दिशा  में दो सीढियां बनी हुई है।इसकी दूसरी मंजिल पर चारो कोनो पर सुन्दर भित्ति चित्रों से युक्त छोटे कमरे बने हुए है।प्रत्येक कमरे के बाहर अर्ध चंद्रमाकर सुन्दर गवाक्ष बने हुए है जो हवा के प्रवाह के लिए अत्यंत उपयोगी होते है।इन चारो कमरों के अन्दर के प्रवेश उस बड़े गुम्बदाकार हाल में खुलते है। इन कमरों को  बहुत ही सुन्दर भित्ति चित्रों से अलंकारित किया है जिनमे प्रमुख रूप से मुग़ल कालीन कुश्ती ,गुलदस्ते,पक्षी ,फूल पत्तियों  इत्यादि के चित्र बनाये गए है। तीसरी मंजिल पर अर्थात इस भवन की छत पर चारो और छतरियो का निर्माण करवाया गया है और बीच में एक बड़ी छतरी बनी हुई है।इन  छतरियों  के खम्भों  का निर्माण  स्थानीय ग्राम छितोंली के पत्थरों से किया गया है।मध्य में बनी विशाल छतरी पर बनी कला कृतियों में मुग़ल एंव राजपूत स्थापत्य कला का बेजोड़ संगम दिखाई देता है।इस छतरी  में कुश्ती,मुग़ल दरबार ,हाथी घोड़े,महाभारत ,रासलीला इत्यादि के चित्र मौजूद है।




दूसरी मंजिल पर बने हुए कक्षों में किये गए भित्ति चित्र में बादशाह अकबर कुश्ती का मज़ा लेता दिखाई दे रहा है।
छत पर बनी बीच में सबसे बड़ी छतरी  है ... यह उसके अन्दर बनी चित्रकला है ..जो  अत्यंत मनमोहक है 
बीच में बनी विशाल छतरी और इसके चारो और चार छोटी छतरियां बनवाई गयी थी 
चौ महला जिसके ऊपर चार छतरियां बनवाई गयी है 

इसी तरह चौ महला और नौ महला कहलाए  क्यूंकि इन भवनों पर भी चार अथवा नौ    छतरियाँ  का सुन्दर निर्माण किया गया है।चौ  महला मजमे-ए -ख़ास के लिए उपयोग में लाया जाता था जहाँ बादशाह अपने उच्च सलाहकारों और मंत्रियों  के साथ राजनैतिक  और कूटनैतिक रणनीतियां बनाता था।नौ  महला जनाना खाना था जहाँ पर स्त्रियाँ और बेगमे आवास किया करती थी।
नौ महला जिसका उपयोग रानीवास के लिए किया जाता था ... इस पर नौ छतरियां विराजमान है 

आठ ढाणे वाला  कुआँ ....पानी को  इन ढाणो में जमा करके नालियों में प्रवाहित किया जाता था 

नौ  महला और चौ  महला दोनों एक दूसरे के आमने सामने बने हुए है।इसका मतलब यह है की चौ  महला और नौ  महला एक ही चार दिवारी में स्थित  है अपितु पंच महला इन दोनों भवनों से कुछ 300 मीटर की दूरी पर स्थित है।इनमे बहुत ही मनोरम बाग़  बगीचों  का निर्माण करवाया गया था।इनमे पानी के संचार के लिए मिट्टी  और चूने की पक्की नालियाँ बनायीं गयी थी जो वर्गाकार एंव आयताकार रूप  में एक दूसरे  को जोडती थी ताकि बाग़ के सभी हिस्सों में पानी का प्रवाह हो सके।इस बाग़ में पानी की व्यवस्था के लिए एक आठ ढाणे वाले कुएं का निर्माण करवाया गया था।इन ढाणों से पानी नालियों के सहारे प्रवाहित किया जाता था।बीच बीच में पानी को एकत्रित करने के लिए टैंक यानी छोटे जलाशय  भी बनाये गए थे जिनको फव्वारों से सुस्सजित किया जाता था।
आजकल चौ महला और नौमहला जैन संप्रदाय के दिगंबर समाज के आधीन है।नौ महला में महावीर जैन की श्वेत संगमरमर की विशाल मूर्ति भी स्थापित  है।अंदर प्रांगण में जैन समाज के लोगो ने एक धर्मशाला एंव शादी ब्याह इत्यादि के लिए एक भवन का निर्माण करवाया है जिसमे कोई भी व्यक्ति  अपने पारिवारिक जलसे करवा सकता है। मेरे अनुसार ये निर्माण इस सुन्दर मुग़ल कालीन विरासत को नुकसान पहुंचा रहा है।इनका निर्माण इन भवनों के बाहर  भी करवाया जा सकता था क्यूंकि इसके निर्माण हेतु इन्होने सारे बाग़ की ज़मीन का उपयोग कर इन भवनों की आंतरिक सुन्दरता को नष्ट कर दिया गया है।

अशोक शिलालेख 

शिलालेख के अंतिम अवशेष 

हमारा अंतिम पड़ाव था सम्राट अशोक कालीन दूसरा शिलालेख जो मुग़ल गेट से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर भीम की डूंगरी ( पहाड़ी ) के नीचे  स्थित है।यह शिलालेख  काफी धूमिल हो चूका है और इसके रख रखाव पर भी कोई ख़ास  ध्यान नहीं दिया जा रहा है।इसे कटवाना मुश्किल था इसलिए ये  यही पर ही एक जाली की चारदीवारी में सुरक्षित  करके रखा गया है।
शिलालेख को बड़े ध्यान से देखते प्रहलाद जी 

शाम के सात  बज रहे  थे इसलिए  मैंने अपने आप को वापस जाने के लिए जैसे तैसे तैयार कर ही लिया।प्रह्लाद जी ने एक रात उनके यहाँ रुकने का आग्रह किया लेकिन मैंने विनम्रता पूर्वक उनको मना कर दिया।जब बस में बैठकर जाने लगा तो सहसा बादशाह अकबर का काफिला पहाड़ो से गुजरता नज़र आने लगा  ...पत्थर के उन शिलालेखो में  सम्राट अशोक का प्रतिबिम्ब उभर कर दिखने लगा  और कानो में बुद्धं शरणम गच्छामि के स्वर गूंजने लगे।
अरावली के पहाड़ों पर एक और सूरज अस्त होने जा  रहा था,एक और रात सामने खड़ी थी ....और समय के काल चक्र में विराट नगर एक और दिन से अग्रज होने जा  रहा था।